Saturday, September 1, 2012

 आधुनिक प्रेम ....

प्यार के इस शोर में बस प्यार खो गया ,
मतलब के मिले दोस्त मगर यार खो गया ....

क्यूँ कहने लगे प्यार हम इस लेन देन को ,
झूठी अकड़ में काहे खोया दिल के चैन को
अपनत्व जाने कैसे  पीठ मोड़ सो गया ,
प्यार के इस शोर में बस प्यार खो गया ,

कैसी ये घड़ी आई , सब नवीनता  गई ,
आडम्बरों से घिर , सारी सहजता गई ,
पुनरुक्तियों की वेदी पर निजत्व खो गया
प्यार के इस शोर में बस प्यार खो गया ,

अपने ही हाथ पाँव काट क्षुद्रता चुनी ,
शालीनता को त्याग, अभद्रता गुनी ,
विराट से विमुख  ह्रदय विदीर्ण  हो गया ,
प्यार के इस शोर में बस  प्यार खो गया ,

तुझसे भी करूं बात शब्द तोल तोल के ,
अश्रद्धा विष का पान करूं घोल घोल के ,
मेरे राम हाथ थाम अब बोहोत हो गया  ,
प्यार के इस शोर में बस प्यार खो गया ,

Wednesday, November 23, 2011

मैंने देखा मौन का साम्राज्य ,

वाणी के जगत के समानांतर,
धारण किये उसे भी ,
किन्तु अस्पर्शित, अभेद्य , अप्रभावित,
स्थापित एक वर्तुल में ,स्वयं में लीन
विस्तीर्ण और अविभाज्य !
मैंने देखा मौन का साम्राज्य ,
वाणी के भरता घाव स्थायित्व से ,
गर्भवती स्त्री सा ,
स्वयं से ठीक विपरीत को पोषण दे ,
पूरी सहिष्णुता से,
बिन राजा , बिन प्रजा , ये कैसा राज्य !
मैंने देखा मौन का साम्राज्य ...

भासता निष्टुर , किन्तु है करुनामय ,
बैठा अनमना सा,
ढोता ब्रह्माण्ड को सहज ही ,
निश्चिन्त उपवास में रत ,
देता प्रवेश निस्पंद , विदा भी, बिन क्रंदन ,
परम अद्वैत में स्थित,
न कुछ ग्राह्य , न त्याज्य !
मैंने देखा मौन का साम्राज्य

Monday, July 4, 2011

अब प्यार हुआ इलज़ाम यहाँ, है मक्कारों कि पौ बाराह ,
नफरत में जीना आसां है, अफ़सोस कहाँ हम आ पोहोंचे !

क्या शोर हुआ, क्या जोर हुआ,यूँ मर मर के मैं और हुआ,
बस बाकी होश ज़रा सा है, अफ़सोस कहाँ हम आ पोहोंचे !

न कोई आँख सुकूं से भरी, न कोई हाथ है कंधे पर,
हर शख्स यहाँ घबराया है, अफ़सोस कहाँ हम आ पोहोंचे !

न सत्य सुना, न वाद सुना, न कल कल झरनों का नाद सुना,
चारों ओर हवाओं में यह कर्कश स्वर भर आया है, अफ़सोस कहाँ हम आ पोहोंचे !

करुणा की गंध भी महकी थी, मुक्ति की चली हवा सी थी,
अपनी बेहोशी में हमने उन फूलों को कुम्हलाया है, अफ़सोस कहाँ हम आ पोहोंचे !

तलवार उठा ओर बाँध कमर, अब नज़र उठा और देख सहर,
आने वाली नस्लें न कहें, अफ़सोस कहाँ हम आ पोहोंचे !

Thursday, March 3, 2011


एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे ।नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा ॥


जिस प्रकार एक ही आकाश पात्र के भीतर और बाहर व्याप्त है, उसी प्रकार शाश्वत और सतत परमात्मा समस्त प्राणियों में विद्यमान है ।।

Just as the same space exists both inside and outside a jar, the eternal, continuous God exists in all.

एक शून्य है भीतर बाहर, आँख खोल कर देख ज़रा ,मिटटी की दीवार गिरी बस, कौन जिया और कौन मरा ?

Tuesday, January 11, 2011

कुम्हलाया देवता तक पोहोंच कर भी फूल,
रहा अमलान धूल में भी शूल !
इस जगत में हमारी समझ है फूल जैसी क्षीण ,
हमारी मूढ़ता है काँटों जैसी प्रगाढ़
The flower withered ,even though it had reached the gods ,
the thorn stays untainted , even in the midst of dust !
...Our understanding is delicate like a flower, ever vulnerable !
On the other hand,our idiocy is quite fixed , just like a stubborn thorn !

Monday, January 3, 2011

God is the easy way out . Thank God, life is not easy !

Friday, December 17, 2010


उठूँ तुझे छूने को, लालायित मन से आऊँ ,
पा के तुझे प्रगाढ़ विश्राम में ,निश्चिंत !
क्या करूं अतिक्रमण ,ठिठक के रह जाऊं ,
करवट से तेरी उठी हलचल के स्पंदन में ही,...
अनुभूत हो तेरा स्पर्श, मैं तृप्त लौट जाऊं !